शुक्रवार, 12 जून 2009

देर तक ।

वो रुलाकर हँस न पाया देर तक ।
जब में रो कर मुस्क्रुया देर तक।
किसी भी आईने में ।
कोई चेहरा रुकता नहीं हैं देर तक।
भूखे बच्चो की तस्सली के लिए,
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक ।
हमने तघाफुल ना किया तब भी ,
जब ज़नाजे पे वो न आया देर तक।
मुझ में ही कोई कमी होगी शायद ,
इसलिए तो मुझे समझ न पाया देर तक।
दिल को तो समझा लेते लेकिन,
अश्क तो अश्क हैं, रुक ही न पाया देर तक।
गुनगुनता हुआ एक फ़कीर कह रहा था,
धुप रहती हैं , न छाया देर तक ।

3 टिप्पणियाँ:

उम्मीद ने कहा…

हमने तघाफुल ना किया तब भी ,
जब ज़नाजे पे वो न आया देर तक।
मुझ में ही कोई कमी होगी शायद ,
इसलिए तो मुझे समझ न पाया देर तक

पता नहीं पर लगता है की आप के अनुभवों की छाप भुत गहरी है .....
एक अजीब से खामोशी तो है ही पर पूरी रचना में आप के मान की व्यथा भी स्पष्ट होती है

Brajdeep Singh ने कहा…

lagta hain ,kisi adhuri kamna ko sabdo ke saath pura karne ki kosis kar rahe ho ,jo real life main puri na ho saki ho
vry gud keep it up

गंगू तेली ने कहा…

Sunder likhte hai janab. Chalte rahiye.....

http://gangu-teli.blogspot.com

 

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