मंगलवार, 23 जून 2009

सब उसका है.


मैंने जो कुछ खोया हैं, सब उसका है,
जो कुछ पाया है , सब उसका है .
जब मैं टूटा , वो भी टूटा ,
यहाँ वहा जो बिखरा हैं, सब उसका है.
मुझ में जो कुछ अच्छा है , सब उसका है,
जो कुछ भी बुरा हैं , सब उसका हैं,
मेरी आँखें उसके नूर से रोशन है ,
जो भी देखा है , सब उसका है ,
जो बह गया आँखों से , सब उसका है,
जो ढल गया निघओं मैं , सब उसका है.

शनिवार, 20 जून 2009

कुछ



उम्र में हादसे भी ज़रूरी है कुछ ,
फासले भी ज़रूरी हैं कुछ,
आप रखे न रखे ,
आपसे रंजिश भी ज़रूरी है कुछ
खो दिया तुम्हे इस ज़िन्दगी मैं ,
खो के पाना भी ज़रूरी है कुछ
हमने माना की एक ख्वाब है ज़िन्दगी ,
ख्वाब में कहकहे भी ज़रूरी है कुछ,
हँस हँस के आन्जन ना हो अपने आप से,
आँखों में आंसों भी ज़रूरो है कुछ 

शुक्रवार, 12 जून 2009

देर तक ।

वो रुलाकर हँस न पाया देर तक ।
जब में रो कर मुस्क्रुया देर तक।
किसी भी आईने में ।
कोई चेहरा रुकता नहीं हैं देर तक।
भूखे बच्चो की तस्सली के लिए,
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक ।
हमने तघाफुल ना किया तब भी ,
जब ज़नाजे पे वो न आया देर तक।
मुझ में ही कोई कमी होगी शायद ,
इसलिए तो मुझे समझ न पाया देर तक।
दिल को तो समझा लेते लेकिन,
अश्क तो अश्क हैं, रुक ही न पाया देर तक।
गुनगुनता हुआ एक फ़कीर कह रहा था,
धुप रहती हैं , न छाया देर तक ।

गुरुवार, 11 जून 2009

हमने देखा है

हमने फूलों को काँटों के बीच खिलते हुए देखा हैं।
फलक का चाँद, बादलों के बीच निकलते हुए देखा है .
कराहने की आवाज़ गुम हो जाती हैं ,
हमने दिलो को पत्थर बनते हुए देखा हैं ।
उनके कंधे पे सर रख कर जब रोया था,
बूँद को मोती बनते हुए देखा है.
सच कहतें है मोहब्बत की जुबान नहीं होती ,
लफ्जों को लबो पे रुकते हुए देखा है.
एक वक़्त था जब नज़र ढूंढा करती थी उन्हें,
आज उन को नज़र चुरातें हुए देखा है.
लोग मजाक उडाते हैं गरीबों का,
हमने गरीबी से अमीरी का फासला देखा है.
ग़र्दिश में आता है ऐसा भी मुकाम,
हमने दिल को दिमाग से लड़ते हुए देखा हैं.

मंगलवार, 9 जून 2009

ये मंज़र क्यूँ है

आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यूँ है
इस अंजुमन में हर कोई तनहा क्यूँ हैं।
अपना अंजाम तो मालोम हैं सबको फिर भी,
अपनी नज़रों में हर शख्स सिकंदर क्यूँ है,
तखय्युल का ये आलम इतना ऊपर है फिर भी ,
अमीरी गरीबी में इतना फर्क क्यूँ है,
हमे यकीन है वोह हमसे बहुत दूर है ,
मिलने की आरजू फिर भी जिंदा क्यूँ है,
जब हकीक़त हैं की हर ज़रे में तू रहता हैं ,
फिर ज़मीं पे कही मस्जिद , कही मंदिर क्यूँ हैं .

सोमवार, 1 जून 2009

तेवर

मेरी ज़िन्दगी के तेवर मेरे हाथ की लकीरें ,
इन्हें तुम अगर बदलते तो कुछ और बात होती।
मैं तुम्हारा आइना था ,
मुझे देख कर संवार्तें तो कुछ और बात होती।
अभी आँख मिली हि थी के गिरा दिया नज़र से,
ज़रा फासले सिमट 'तय तो कुछ और बात होती।
ये खुली खुली सी जुल्फें इन्हें लाख तुम संवारो.
मेरे हाथ से संवारतें तो कुछ और बात होती।
मुझे अपनी ज़िन्दगी का कोई ग़म नहीं है,
लेकिन तेरे डर पे जान नि क लती तो कुछ और बात होती ।
 

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